जैसे काले बादल बिजलियाँ गिरा रहे थे ।
हाय वो गाल पे ढलकी-ढलकी बूंदें,
हम भी उनकी किस्मत से रश्क खा रहे थे ।
ये बेखुदी क़ैसी है छा रही... ?
उफ़ ये शबनमी झोंके; गेसुओं को जो उड़ा रहे थे।
ये बादलों की ओंट से,निकलता आफ़ताब
किस कदर साहिलों पे सितम ढा रहे थे।
किस कदर साहिलों पे सितम ढा रहे थे।
ये जो रंग आया है, सुर्ख-सिंदूरी तेरे बदन का..
किसके खूँ से आज तुम नहा रहे थे ।
-'जान'
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