मंगलवार, 10 मार्च 2015

बला-ए-इश्क़...

  





कुम्हलाए हम तो जैसे सजर से पात झड़ जायें
यु दिल वीरां कि बिन तेरे, चमन कोई उजड़ जायें


मिरी आव़ाज में है अब चहक उसके आ जाने की
सितारों आ गले लूँ लगा,कि हम तुम अब बिछड़ जायें


कि बरसों बाद मिलके आज छोड़ो शर्म एहतियात
लबों से कह य दो के अब, लबों से आके लड़ जायें


न मारे मौत ना जींस्त उबारे या ख़ुदा खैराँ
बला-ए-इश्क़ पीछे जिस किसी के हाय पड़ जायें


बना डाला ग़मों के साहिलों ने ‘’जान’’ को दरिया
रस्ता पर्वत दिए जाये अगर हम राह अड़ जायें


          




                                  -‘’जान गोरखपुरी’’

                                   07 march 2015

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