मुझे बिच्छू के
मंतर नही आते थे..
हाँ चीटियों के भी नही..
मुझे कभी शौक भी नही रहा उस खजाने का!
पर नागिनें अकसर
मुझपे मेहरबान रही!
मौका मिलते ही डस लेती थीं,
क्यूंकि उन्हें जाँचनी होती थी
उनके अपने दंश का असर!
और मेरी जीवटता उनके लिए
प्रयोग की बिल्कुल सही जन्तु थी!
पूरी ताकत से विष
उगलती देती थी वें
मेरे भीतर! सुनने को मेरी उफ़!
और मै उनींदा बरसों नींद की
तलाश में तडपता रहता,
पर होश मेरे कदम
छोड़ने को तैयार न होते कभी!
गश खाकर मै कई बार बैठा!
पूरे भरे दिल के साथ
धडकनों को पूरी रफ़्तार से सुनते हुए!
फिर अचानक से
थमते!जैसे ...के बस ख़त्म!
लेकिन फिर होश बाजी मार ले जाता घिनौनी सी हँसी हसते हुए!!
अर्सा बीता और अब मुझे भी रहा नही जाता था
नागिन और उसके विष के बिना,
तड़पने में मजा आने लगा.....,
अब मै आजमाइश पे था,
अफीम से लेकर धतूरा तक घुलने लगा खून में मेरे
पर तेरे जहर को टक्कर न दे पाया कोई!
कोशिश यही रहती थी..
उनींदापन और होश की लड़ाई चलती रहे!
धडकनों को रफ़्तार!और धक्क से रुकने!फिर चलने में
मुझे जिन्दा होने के सबूत मिलते थे,
और सच मायने में तो
मुझे अब चाहिए था.......
लम्हों में सदियों के गुजरने सा एहसास!
के बस जिंदगी गुजर जाये जैसे-तैसे!
और करम ऐसा के नागीनें जिंदगी के
हर मोड़ पर मिलती रही...
जींस्त दिलचस्प बनी रही!
घड़ी-घड़ी शह और मात की
बाजियां चलती रही..
जाने अनजाने मै भी अपनी चालें
चलता रहा,क्यूंकि मुझे..
जीत और हार से अबके कोई मतलब नही था....
तो समझ को बस ‘’बैकग्राउंड’’ में
चलने को छोड़ दिया..
करती रहो तुम अपनी
जोड़-घटाव, गुना-भाग
हाँ अगर कोई निष्कर्ष आ जाये तो बता देना!
अभी तक तो उसने मुझे कोई खबर नही दी है!
और शायद दे भी न पाये!
अब एक बात तो तय थी के
मुझे किसी मंतर-जंतर सीखने जरुरत नही थी,
विष इतना हो चला था के,
अब नंगे पाँव अंधियारी रात में
जंगल-जंगल बाँबीयों के बीच सुकून
पाने को टहलने लगा था..
मेरे कान भी अब धमक
और खनक सुन लेते थे जरा सी हलचल पे भी!
ये नया अहसास तो मेरे अन्दर की चीत्कार को
और गुंजाने लगता!
शब्द हुंकार बन गए,सुर थिरकते लगे अविराम
बीन और शहनाई की धुनें एक साथ बजतीं
पर मैं चुप ही रहता!
पर अन्दर अन्दर
अणु-परमाणु के क्रमिक विखंडन
को संभाले हुए..............*****
*****क्रमशः
-'कृष्णा मिश्रा'
०४-०५ अप्रैल २०१५
मंतर नही आते थे..
हाँ चीटियों के भी नही..
मुझे कभी शौक भी नही रहा उस खजाने का!
पर नागिनें अकसर
मुझपे मेहरबान रही!
मौका मिलते ही डस लेती थीं,
क्यूंकि उन्हें जाँचनी होती थी
उनके अपने दंश का असर!
और मेरी जीवटता उनके लिए
प्रयोग की बिल्कुल सही जन्तु थी!
पूरी ताकत से विष
उगलती देती थी वें
मेरे भीतर! सुनने को मेरी उफ़!
और मै उनींदा बरसों नींद की
तलाश में तडपता रहता,
पर होश मेरे कदम
छोड़ने को तैयार न होते कभी!
गश खाकर मै कई बार बैठा!
पूरे भरे दिल के साथ
धडकनों को पूरी रफ़्तार से सुनते हुए!
फिर अचानक से
थमते!जैसे ...के बस ख़त्म!
लेकिन फिर होश बाजी मार ले जाता घिनौनी सी हँसी हसते हुए!!
अर्सा बीता और अब मुझे भी रहा नही जाता था
नागिन और उसके विष के बिना,
तड़पने में मजा आने लगा.....,
अब मै आजमाइश पे था,
अफीम से लेकर धतूरा तक घुलने लगा खून में मेरे
पर तेरे जहर को टक्कर न दे पाया कोई!
कोशिश यही रहती थी..
उनींदापन और होश की लड़ाई चलती रहे!
धडकनों को रफ़्तार!और धक्क से रुकने!फिर चलने में
मुझे जिन्दा होने के सबूत मिलते थे,
और सच मायने में तो
मुझे अब चाहिए था.......
लम्हों में सदियों के गुजरने सा एहसास!
के बस जिंदगी गुजर जाये जैसे-तैसे!
और करम ऐसा के नागीनें जिंदगी के
हर मोड़ पर मिलती रही...
जींस्त दिलचस्प बनी रही!
घड़ी-घड़ी शह और मात की
बाजियां चलती रही..
जाने अनजाने मै भी अपनी चालें
चलता रहा,क्यूंकि मुझे..
जीत और हार से अबके कोई मतलब नही था....
तो समझ को बस ‘’बैकग्राउंड’’ में
चलने को छोड़ दिया..
करती रहो तुम अपनी
जोड़-घटाव, गुना-भाग
हाँ अगर कोई निष्कर्ष आ जाये तो बता देना!
अभी तक तो उसने मुझे कोई खबर नही दी है!
और शायद दे भी न पाये!
अब एक बात तो तय थी के
मुझे किसी मंतर-जंतर सीखने जरुरत नही थी,
विष इतना हो चला था के,
अब नंगे पाँव अंधियारी रात में
जंगल-जंगल बाँबीयों के बीच सुकून
पाने को टहलने लगा था..
मेरे कान भी अब धमक
और खनक सुन लेते थे जरा सी हलचल पे भी!
ये नया अहसास तो मेरे अन्दर की चीत्कार को
और गुंजाने लगता!
शब्द हुंकार बन गए,सुर थिरकते लगे अविराम
बीन और शहनाई की धुनें एक साथ बजतीं
पर मैं चुप ही रहता!
पर अन्दर अन्दर
अणु-परमाणु के क्रमिक विखंडन
को संभाले हुए..............*****
*****क्रमशः
-'कृष्णा मिश्रा'
०४-०५ अप्रैल २०१५
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