सफ़र-ए-वफ़ा में हुयी,तो वही बात हुयी
हुयी तो उसी बेवफा से मुलाकात हुयी
मै हूँ इश्क में या,कि दिल है कफ़स में तेरी
कि है मुझको मालिक मिरे कैद-ए-जुल्मात हुयी
कोईतो नही जुल्फ-ए-स्याह में जो सुलाय
है फिर आज बुझती हुयी सी दगा रात हुयी
न थी जिसको इल्मे-वफा-ओ-करम यारब
उसी संग़दिल से थी क्यू ‘’जान’ वफ़
आत हुयी
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(C) 'जान' गोरखपुरी
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