मंगलवार, 19 मई 2015

गम नही मुझको...

गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर               (फ़र्द = अकेला)
दिल का पर क्या करूं मर्ज होने पर

उनको है नाज गर बर्क होने पर                
मुझको भी है गुमां गर्द होने पर

चारगर तुम नहीं ना सही माना
जह्र ही दो पिला दर्द होने पर

अपनी हस्ती में है गम शराबाना
जायगा जिस्म के सर्द होने पर

डायरी दिल की ना रख खुली हरदम
शेर लिख जाऊँगा तर्ज होने पर

तान रक्खी है जिसने तेरी चादर
भूलता क्यूँ उसे अर्श होने पर

माल साँसों की, कर हर घड़ी सिमरन
ठगना क्या?वख्त-ए-मर्ग होने पर

जुर्म उसका होना अन्नदाता था
लटका सूली दिया कर्ज होने पर

बात सच्ची कहूँ सुन  मिले चाहे
बद्द्दुआ लाख़ ही तर्क होने पर

मुफलिसी का तेरी तू है जिम्मेवार
है गुनह रहना चुप फ़र्त होने पर                 (फ़र्त = ज्यादती/जुल्म)

रात सोलह दिसम्बर बारह दिल्ली
शर्मसार आदमी मर्द होने पर

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       (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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