मुहब्बत
का मै आसरा चाहता हूँ
तेरे
इश्क में डूबना चाहता हूँ
जहाँ से सुखन की है गंगा निकलती
दिलो-जान
वो चूमना चाहता हूँ
सुने
है बहुत तेरे जलवों के किस्से
सरापा
तेरा सामना चाहता हूँ
बनाकर
मिटाना मिटाकर बनाना
वली खत्म ये सिलसिला चाहता हूँ (वली =
सर्वज्ञ)
दिवाना
बनाया है तो वस्ल भी दो
“चिराग-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ’’
गज़ल आरती बन गई है मेरी अब
कि
हर्फ़न् तुझे पूजना चाहता हूँ (हर्फ़न् =अक्षरशः)
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(c)‘जान’ गोरखपुरी
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